Thursday 9 May 2019

पार्टी छोडऩे व अपनाने की होड़, हवा में नहीं दिख रही किसी राजनीतिक दल की लहर


फरीदाबाद। फरीदाबाद संसदीय सीट से जहां सभी प्रत्याशी प्रचार अभियान में एक दूसरे को पीछे छोडऩे की होड़ में जुटे हुये हैं वहीं विभिन्न नेताओं व कार्यकर्ताओं द्वारा पार्टियों को बदलने का क्रम जारी है। यही नहीं प्रतिदिन जहां संगठन अपने-अपने हिसाब से उम्मीदवारों को सही बताते हुए समर्थन देने की राह अपनाने लगे हैं वहीं इन चुनावों की एक विशेषता और सामने आ रही हैं कि इन चुनावों में वे लोग अधिक सक्रिय हैं जो फरीदाबाद के राजनीतिक धरातल पर अपना वजूद तलाश रहे हैं। फरीदाबाद संसदीय सीट से भाजपा उम्मीदवार श्री कृष्णपाल गुर्जर के समर्थन में आयोजित विभिन्न जनसभाओं में विभिन्न दलों के लोगों द्वारा अपना समर्थन देने की घोषणा उपरांत जहां भाजपाई उत्साहित दिखाई दे रहे हैं वहीं कांग्रेस उम्मीदवार को पंजाबी वर्ग द्वारा दिये जाने वाले समर्थन के साथ-साथ समाजसेवी वर्ग के एक बड़े घटक द्वारा दिया गया समर्थन कांग्रेसजनों के उत्साह में चार चांद लगा रहा है। क्रमश: यही स्थिति आप उम्मीदवार नवीन जैन व बसपा उम्मीदवार मनधीर सिंह मान की कही जा सकती है, यह बात अलग है कि भाजपा व कांग्रेस के समर्थन में जो घोषणाएं की जा रही हैं वह आप और बसपा के खाते में उतनी अधिक नहीं हैं।
चुनावी पर्यवेक्षकों की मानें तो इस बार चुनाव कुछ कठिन दिखाई दे रहे हैं। अब से पूर्व चुनावों में एक लहर सी महसूस होती रही है और अमूमन यह धारणा बन जाती है कि कौन सा प्रत्याशी विजयश्री की ओर बढ़ रहा है परंतु इस बार इसमें काफी कौर कसर दिखाई दे रही है। पहले जैसा दौर भी अब नहीं दिखाई देता जब लोगों के घरों के ऊपर पार्टियों के झंडे या पहनावे में पार्टियों के निशान दिखाई देने लगते थे।
समय के साथ चुनाव भी हाईजैनिक हुए कहे जा सकते हैं जहां एक वोटर अपने आसपास भी इस बात की भनक भी नहीं लगने देना चाहता कि उसका वोट किये जाएगा। वोट की गोपनीयता हालांकि संवैधानिक अधिकार है परंतु पहले के चुनावों में एक लहर सी महसूस हो जाती थी जिसका अभाव इन चुनावों में साफ दिखाई दे रहा है। चुनाव की हवा तो है परंतु इस हवा में किसी पार्टी की लहर है, यह नहीं कहा जा सकता।
क्षेत्र में वर्तमान चुनावों को लेकर ऐसी भी चर्चा है कि माहौल के साथ समर्थन देने वालों व इसकी घोषणा करने वालों का रूख भी बदला है। यदि पिछले चुनावों का इतिहास उठाएं तो देखा जा सकता है कि दर्जनों नेता चुनावी समर में एक दूसरे के कैम्प में शामिल होते थे, अपनी पार्टियों को छोड़ते थे और उनके साथ उनके समर्थक आते थे। आज समय बदला है यदि समाचार पत्रों की सुर्खियों को नजरअंदाज कर दिया जाए तो नेता नहीं बल्कि कार्यकर्ता ही इधर-उधर जाते दिखाई दे रहे हैं और जिस खेमे में वे प्रवेश कर रहे हैं वहां उनके साथ जनसमर्थन का सैलाब साथ आने की घोषाणा की जा रही जबकि जिस दल को वे छोड़ते हैं वहां ऐसी प्रतिक्रिया रहती है मानो कोई बहुत बड़ा रोग भाग गया हो और इसका लाभ पार्टी को मिलना तय है।
गत दिनों ऐसी ही प्रतिक्रिया एक राजनीतिक दल में शामिल हुए कुछ नेताओं को लेकर हुई। सालों तक स्वयं को एक पार्टी का वफादार कहने वाले इन लोगों ने दूसरी पार्टी का दामन थाम लिया। स्वागत हुआ और निंदा भी हुई, किसी ने यह कहा कि इनके आने से हमारी हालत मजबूत हुई है तो किसी ने यह कह दिया कि इनके जाने से हमें सुकून मिला है।
बहरहाल चुनावी मौसम में इधर-उधर जाना एक सामान्य प्रक्रिया है और इसे वर्तमान परिवेश में इसलिए भी असहज नहीं माना जा सकता क्योंकि निष्ठा व समर्पण की जो भाषाएं व ज्ञान नेता बोलते  व झाड़ते रहे हैं वह पिछले चुनावों से ही समाप्त होती दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस हो या भाजपा, इनेलो हो या जजपा, आप हो या बसपा आज यह दावे नहीं कर सकते कि उनका कार्यकर्ता कब मुंहफेर लेगा क्योंकि हवा में ही वफा नहीं है, ऐसे में किसी से और कुछ नहीं तो बेवफाई की उम्मीद तो की ही जा सकती है, कोई नेता या कार्यकर्ता सुबह किसी पार्टी में है तो शाम को उसकी पार्टी क्या होगी इसका दावा कोई नहीं कर सकता, ऐसा स्वयं राजनतिक दलों में सक्रिय लोगों का मानना है
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